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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> नाम रामायण

नाम रामायण

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4764
आईएसबीएन :00-0000-000-0

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परम पूज्य स्वामी रामकिंकर जी पर आधारित पुस्तक.....

Nam Ramayan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महाराजश्री : एक परिचय

प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे  पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।
 
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।  

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग  प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो  जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।

रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।

रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !


प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी


।। श्रीरामः शरणं मम ।।

प्रथम प्रवचन


भगवान् श्रीरामभद्र की महती अनुकम्पा से इस वर्ष भी यह सुअवसर मिला है कि संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट और संगीत कला मन्दिर के तत्त्वाधान में आयोजित इस कार्यक्रम में प्रभु के मंगलमय ‘राम’ नाम की ‘महिमा’ का वर्णन करें। अभी श्री बिन्नानीजी ने स्मरण दिलाया कि यह परम्परा 29 वर्षों से चल रही है और स्वयं में एक उपलब्धि है। मुझे प्रसन्नता है कि आप लोग आज भी उसमें उतनी ही रसानुभूति पाते हैं जितनी प्रारम्भ में आपको मिली थी। उसमें पुरातनता के द्वारा उत्पन्न होनेवाली विरति की कोई वृत्ति आप में दिखाई नहीं देती। सचमुच रामकथा है ही ऐसी ! और मेरे जीवन में रामकथा किसी प्रयत्न के कारण नहीं है। वक्ता के रूप में दिखाई देनेवाला व्यक्ति तो एक निमित्तमात्र है। प्रभु ही इस वाणी के माध्यम से स्वयं के रहस्य को प्रकट करते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।

श्री बिन्नानीजी ने अभी जो मेरे प्रति भावोद्गार प्रकट किए वे हमारी भारतीय परम्परा की श्रद्धा-भावना से जुड़े हुए हैं। गोस्वामी जी को भी जब वाल्मीकि का अवतार कहा गया, तब उन्होंने भी यही कहा कि कितनी विलक्षण बात है कि- ‘तुलसी सो सठ मानियत महा मुनि सो।’ मुझ जैसे दुष्ट व्यक्ति को भी लोग वाल्मीकि के रूप में देखते हैं। और जब कोई व्यक्ति मुझे उस रूप में देखता है जिसकी ओर श्री बिन्नानीजी ने संकेत किया तो मैं उसे अस्वीकार नहीं करता, पर मेरी मान्यता इस विषय में यही है कि कभी तुलसीदास ने रामकथा का निर्माण किया था और अब अगर रामकथा तुलसीदासों का निर्माण करे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यह महिमा वस्तुत: रामकथा की ही है।

प्रारम्भ में मैं कुछ पंक्तियाँ मानस की पढ़ूँगा जिनकी व्याख्या आपके समक्ष की जायेगी-


राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।
रिषि हित राम सुकेतसुता की।
सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।।
सहित दोष दुख दास दुरासा।
दलइ नामु जिमि रिबि निसि नासा।।
भंजेउ राम आपु भव चापू।
भव भय भंजन नाम प्रतापू।।
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन।
जन मन अमित नाम किए पावन।।
निसिचर निकर दले रघुनंदन।
नामु सकल कलि कलुष निकंदन।।
सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ।। 1/24।।


अभी जो पंक्तियाँ आपके सामने पढ़ी गयीं वे मानस में ‘नाम वन्दना’ प्रसंग की हैं।

हमारे भक्ति शास्त्र की ऐसी मान्यता रही है कि भगवान् के चार विग्रह हैं- नाम, रूप लीला और धाम। इसका अभिप्राय है कि नाम के रूप में भी ईश्वर ही है, आकृति के रूप में भी ईश्वर ही है और कथा तथा धाम के रूप में भी ईश्वर ही है। और इन चार में से चारों का अथवा एक का भी आश्रय लेनेवाला व्यक्ति जीवन में कृत्कृत्यता का अनुभव कर सकता है। गोस्वामीजी ने रामचरितमानस में इन चारों महिमा का वर्णन किया है सभी के स्वरूप का ऐसा महद्वर्णन है कि उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग आकर्षण की अनुभूति होती है।

यह जिज्ञासा लोगों के अन्त:करण में स्वाभाविक होती रही है कि स्वयं गोस्वामीजी ने किस साधना के द्वारा अपने जीवन में धन्यता तथा पूर्णता प्राप्त की और इस विषय में श्रीरामचरितमानस तथा विनय-पत्रिका में गोस्वामीजी बार-बार एक ही बात दोहराते हैं। जिस समय तक तुलसीदास जी की महिमा देश भर में बहुत बढ़ चुकी थी। उनके साथ चमत्कारों की अनेक गाथाएँ जुड़ गयी थीं। उस समय उनसे भी लोगों ने यह पूछा कि आप अपनी सिद्धि का रहस्य बताइये। पर जब उन्होंने ‘राम’ शब्द का उपयोग किया तो सुननेवाला अविश्वास की दृष्टि से उन्हें देखने लगा क्योंकि सुननेवाले के मन में किसी रहस्यपूर्ण साधना की धारणा थी कि तुलसीदासजी ने ऐसी कोई अद्भुत साधना की होगी या कोई विकट तपस्या की होगी जिसके परिणाम स्वरूप उनके जीवन में इतनी सिद्धियां आ गयीं।

 ‘राम’ नाम को सुनकर व्यक्ति को यह लगना स्वाभाविक था कि ये नन्हें-से दो अक्षरों वाला शब्द जिससे हम लोग भली-भाँति परिचित हैं, भला ! उसके लिये यह कहना ‘राम-नाम’ के द्वारा ही मेरे जीवन में पूर्णता प्राप्त हुई है, शायद यह छिपाने की परम्परा का परिचायक है। हमारे देश में अपनी साधना को छिपाने की परम्परा भी बड़ी पुरानी रही है। प्रारम्भ में गोस्वामीजी के प्रति भी लोगों को यही सन्देह हुआ। और तब विनय-पत्रिका में उन्होंने भगवान् शंकर की शपथ लेकर विश्वास दिलाने की चेष्टा की। वे कहते हैं कि मेरा आग्रह यह नहीं है कि यही बात ठीक है। लेकिन हाँ इतना अवश्य है कि-


प्रीति प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो। वि.प. 226


मनुष्य के अन्त:करण में जिस साधना के प्रति विश्वास होता है, जिस साधना में प्रीति होती है उस व्यक्ति का कल्याण उसी साधना के द्वारा होता है। पर यदि आप मुझसे पूछते हैं कि मेरा कल्याण कैसे हुआ तो मैं स्पष्ट कहता हूँ कि-


संकर साखि जो राखि कहौं कुछ, तौं जरि जीह गरो। वि.प. 226


अगर मैंने कुछ भी छिपाने की चेष्टा की है तो मेरी जिह्वा गलकर या जलकर गिर जाए। मेरा स्वयं का अनुभव यही है कि-


अपनो भलो राम नामहिं सों तुलसिहि समुझि परो।। वि.प.226


मेरा भला तो राम-नाम के द्वारा ही हुआ है। इन शब्दों में जिस आग्रह से वे नाम के प्रति अपनी आस्था को प्रकट करते हैं वह अपने आप में ही अद्वितीय है। इसको यों कहें कि जैसे आयुर्वेद शास्त्र में अनेक औषधियाँ हैं, और उन सभी औषधियों के गुण हैं, पर यदि कोई व्यक्ति औषधि की प्रशंसा करने के साथ-साथ यह कहे कि पुस्तकों में लिखा गया है कि इन औषधियों में ये गुण है, तो शब्द सुननेवाले के मन में उत्साह और प्रेरणा तो होगी लेकिन बहुत अधिक नहीं। पर अगर आपका कोई विश्वस्त व्यक्ति यह कहे कि इस औषधि का सेवन मैंने स्वयं करके देखा है और मुझे इससे लाभ हुआ है तो सामनेवाले व्यक्ति के मन में इससे बड़ी प्रेरणा मिलती है।

गोस्वामीजी यह कहते हैं कि यद्यपि सभी साधनाएँ परम कल्याणकारी हैं; परन्तु यह आवश्यक नहीं कि एक ही साधाना के द्वारा सबका कल्याण हो, किन्तु जहाँ तक मेरी व्यक्तिगत अनुभूति है वह यही है कि ‘राम-नाम’ की साधना ही सर्वोच्च है। वे ‘राम-नाम’ को किस दृष्टि से देखते हैं उसका वर्णन नौ दोहों में किया गया है। पर कुछ पंक्तियों में उन्होंने यह कहा कि ब्रह्म के दो स्वरूप माने जाते हैं- ‘निर्गुण और सगुण’। एक मान्यता है कि ब्रह्म निर्गुण निराकार है, उसकी कोई आकृति नहीं है। तथा दूसरी मान्यता यह है कि ईश्वर सगुण साकार है और उसकी आकृति है। पर गोस्वामीजी का मार्ग समन्वय का है। इसलिये वे दोनों का ही समर्थन करते हुए कहते हैं कि निर्गुण भी वही है और सगुण भी वही है। पर इसके साथ भगवान के नाम की वन्दना करते हुए उन्होंने कहा है कि यदि मुझसे पूछा जाय कि निर्गुण और सगुण दोनों में-से श्रेष्ठ कौन है तो मैं यह कहूँगा कि जो राम-नाम है वह निर्गुण ब्रह्म की तुलना में भी श्रेष्ठ है और सगुण ईश्वर की तुलना में भी श्रेष्ठ है। इसीलिये उन्होंने कुछ पंक्तियाँ लिखकर यह बताया है कि निर्गुण निराकार की तुलना में राम-नाम क्यों श्रेष्ठ है ? उसके पश्चात् वे यह कह सकते हैं कि भगवान् श्रीराम अवतार लेकर जो कार्य सम्पन्न करते हैं; वे कार्य भगवान् के नाम के द्वारा और भी अधिक सरलता से सम्पन्न होते हैं। उनका शब्द यही है कि-


अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा।।
मोरे मत बड़ नामु दुहू तें।
किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें।। 1/22/1-2


यहाँ पर गोस्वामीजी ने अपनी स्पष्ट घोषणा कर दी कि मेरी दृष्टि में राम-नाम ही श्रेष्ठ है, और ‘दोहावली रामायण’ में वे बड़े कवित्वपूर्ण पद्धति में इसको प्रस्तुत करते हैं। उनसे यह पूछा गया कि आप अपने जीवन में निर्गुण को महत्त्व देते हैं या सगुण को ? इसका उत्तर देते हुए गोस्वामीजी ने कहा कि अगर आपके घर में दो अतिथि आ गये हों तो क्या यह आवश्यक है कि एक को ठहरा करके दूसरे को लौटा दिया जाय ? उचित तो यही है कि अगर दो अतिथि आते हैं तो हम दोनों को ही सम्मानपूर्वक ठहराते हैं। इसी प्रकार तो मैं निर्गुण तथा सगुण दोनों को ही स्वीकार करता हूँ और दोनों के रहने के लिए मैंने दो स्थान चुन लिये हैं। एक स्थान पर निर्गुण विराजमान है तो दूसरे स्थान पर सगुण।

‘हिय निर्गुण’ अर्थात् अन्त:करण का हृदय में वह ईश्वर निर्गुण निराकार के रूप में विद्यमान है। सारे शास्त्रों की यह मान्यता है कि निर्गुण निराकार, सर्वव्यापक ब्रह्म अन्तर्यामी के रूप में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में निवास करता है। इसलिये मैंने उसे हृदय में निवास दे दिया और ‘नयनहि सगुण’ सगुण साकार ईश्वर को नेत्रों में बसा लिया। इसका अभिप्राय है कि जब हम उसे निर्गुण निराकार मानते हैं और साथ में यह भी मानते हैं कि वह हृदय में है तो ऐसा लगता है कि जब तक हम आँख बन्द करके अपने अन्तर्हृदय में नहीं देखेंगे तब तक वह ईश्वर नहीं दिखाई देगा। लेकिन इसके साथ यह भी स्वाभाविक ही है कि जितनी देर आँख बन्द कर उसका ध्यान करेंगे उतनी देर तक हमें अपने हृदय में उसकी उपस्थिति का भान होगा और नेत्र खोलते ही संसार तथा ईश्वर के बीच एक विभाजक रेखा खिंच जाएगी। क्योंकि आँख खुलने पर जो दिखाई दे वह संसार और बन्द करके जो दिखाई दे वह ईश्वर। और सबसे बड़ा संकट यह है कि आँख बन्द करने की तुलना में आँख खुली रखने की स्थिति अधिक समय तक रहती है। और इसका सीधा-सा अर्थ यह हुआ कि जब हम संसार और ईश्वर में विभाजन करेंगे तो अधिकांश समय में संसार को ही देखते रहेंगे और ईश्वर का साक्षात्कार बहुत थोड़े समय तक करेंगे। इसलिये गोस्वामीजी एक विशेष वाक्य जोड़ देते हैं।

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